Saturday, 21 May 2011

तीसरा पन्ना -बिसरिया का चित्रण

"ठाकुर साहब युनिवर्सिटी के उन विधार्धियों मे से थे जो बरायनाम विधार्थी होते हैं और कब तक वे युनिवर्सिटी को शुशोभित करे रहेंगे, इसका कोई निश्चय नहीं. एक अच्छे खासे रूपये वाले व्यक्ति थे और घर के ताल्लुकेदार. हंसमुख, फब्तियां कसने मे मजा लेने वाले, मगर दिल के साफ़ निगाह के सच्चे."

एक ही व्यक्ति पर एक ही समय एक ही साथ व्यंग्य करना और तारीफ करना हर किसी के बस कि बात नहीं है लेकिन आप देखिये ऊपर इस रचनाकार ने ना सिर्फ तीखा व्यंग्य किया है बल्कि तारीफ भी उतना ही दिल खोल कार करी है वो भी गिनती के शब्दों मे. ये कलम का जादू हर किसी के बस नहीं होता.

अगर व्यंग्य करेंगे तो सोचने के लिए आप को मजबूर होना पड़ेगा और हंसाने कि लेखक कि इच्छा का आप तिरस्कार कर ही नहीं सकते और हंस ही देंगे. आप ही पढ़िए

"दोनों उठ कार एक कृत्रिम कमल-सरोवर कि ओर चल दिए जो पास ही बना हुआ था. सीढीयां चढ़कर ही उन्होंने देखा कि एक सज्जन किनारे बैठे कमलों कि ओर एकटक देखते हुए ध्यान मे तल्लीन हैं.दुबले पतले छिपकली से बालों कि एक लट माथे पर झूमती हुई-

"कोई प्रेमी हैं, या कोई फिलासफर हैं, देखा ठाकुर?"

"नहीं यार दोनों से निकृष्ट कोटि के जीव है--ये कवि हैं"


हालाकि मै खुद भी कवि होने का गुमान रखता हूँ लेकिन ये पंक्तियाँ मुझे हंसा गई हैं तो आम इंसान कैसे हँसने से इनकार कर देगा.

इस तीसरे पन्ने मे रचनाकार ने ना सिर्फ हँसाया है बल्कि एक कवि के अंदर उपजने वाले मनोभावों और अंतर्द्वंद को भी चित्रित कर दिया है और प्रेम कि परिभाषा इंसान किस तरह से बना सकता है वो भी बताया है और ये भी बताया है की कैसे एक कवि का कई बार समाज मे मजाक उडाया जाता है.

"कपूर बोला -"जहाँ तक मैंने समझा और पढ़ा है -प्रेम एक तरह कि बीमारी होती है, मानसिक बीमारी, जो मौसम बदलने के दिनों मे होती है, मसलन क्वार-कार्तिक या फागुन-चैत. उसका संबंध रीढ़ कि हड्डी से होता है और कविता एक तरह का सन्निपात होता है "

 
उक्त वक्तव्य कपूर ने बिसरिया के कविता संग्रह के कहानी संग्रह और उपन्यासों से कम बिकने वाले सवाल पर कहे हैं 
कहने को काफी कुछ कहा जा सकता है हर पन्ने के लिए लेकिन आज के लिए तीसरा पन्ना काफी है अब फिर मुलाकात होगी अगले पन्ने के साथ

Friday, 20 May 2011

देवताओं का शहर और देवता से मुलाकात

पहला और दूसरा पन्ना  
मै वो लिखने की कोशिश तो बिलकुल नहीं करूँगा जो किताब मे लिखा ही है ये तो मै मेरे भावो को लिखता ही जाऊँगा और बीच बीच मे कुछ पंक्तियां किताब से भी नक़ल कर ही लूँगा

इलाहबाद का चित्रण कुछ ऐसा ही है जैसे ये शहर ना हुआ बल्कि एक प्रेमी हों गया जिसकी चच मे स्वछंदता है बहाव है, कोई नियम कायदे नहीं है, प्यार है मतलब है उसका कारण नहीं है. शहर तो शहर, शहर का मौसम भी प्रेमी ही बना हुआ है जिसके पास कोई नियम, कायदा क़ानून नहीं है, जब उसका मन होगा मोहब्बत करने का तो मासूम को खुशगवार बना देगा और जब खिन्नता दिखाने का मन होगा तो सूर्य से आगे बरसाने लगेगा.

धरती भी ऐसी उन्मुक्तता लिए हुए जिसमे एक शहर मे ही सारा देश समाया गया है चाहे वो रेगिस्तान की रेत हों या मालवा के खेत. सब कुछ मिला कर ये शहर देवताओं के रहने का शहर ही साबित होता है

धर्मवीर भारती जी ने ये बतला दिया है कैसे निर्जीव से भी एक सजीव प्यार करने को मजबूर हों सकता है उस निर्जीव से जिसका होना और ना होना एक बराबर ही है.

इस शहर मे शीत की गुलाबी ठण्ड भी है और कवर की तेज गर्मी भी लेकिन उस सब के बाद भी ये शहर सबसे निराला ही है

और ये कहानी है उस युवक की जो इसी शहर की प्यारी सी सुबह मे एक पार्क मे फूलो की खुशबुओं को महसूस करते हुए अपनी आँखों से फूलो की क्यारियों को भी अपना बनाता जा रहा था

"हेलो कपूर!" सहसा किसी ने पीछे से करने पर हाथ रख कर कहा -"यहाँ क्या झक मार रहे हों सुबह -सुबह ? "

उसने मुड़कर पीछे देखा -" आओ, ठाकुर साहब ! औ बैठो यार, लाइब्रेरी खुलने का इन्तेजार कर रहा हूँ ."

"क्यों, युनिवर्सिटी लाइब्रेरी चाट डाली, अब इसे तो शरीफ लोगो के लिए छोड़ दो !"

"हाँ, हाँ, शरीफ लोगो के ही लिए छोड़ रहा हूँ; डॉक्टर शुक्ला की लड़की है न, वह इसकी मेम्बर बनना चाहती थी तो मुझे आना पडा, उसी का इन्तेजार भी कर रहा हूँ. "
  
"डॉक्टर शुक्ल तो पोलिटिक्स डिपार्टमेंट मे हैं ?" 

"नही गवर्नमेंट साइकोलोजिकल ब्यूरो मे हैं."

"और तुम पोलिटिक्स मे रिसर्च कर रहे हों ?"

"नहीं इकोनोमिक्स मे !"

"बहुत अच्छे ! तो उनकी लड़की को सदस्य बनवाने आये हों ?" कुछ अजब स्वर मे ठाकुर न कहा

"छि : ! "

एक बड़ा ही मासूम सा मजाक जो एक सच्चे इंसान को गंदगी ही लगा और मजबूर हों जाना पद उसे खुद शर्मिंदा हों जाने के लिए

इस बार के लिए इतना ही बाकी का अगली किश्त मे

गुनाहों का देवता

"गुनाहों का देवता"

कहने को तो ये सिर्फ एक किताब ही है लेकिन सिर्फ मै इसे सिर्फ एक किताब नहीं कहूँगा, ये किसी बाजीगर की नायाब बाजीगरी है, किसी सम्मोहन सम्राट का न टूटने वाला सम्मोहन है, ये एक ऐसा मायाजाल है जिसने ना जाने मुझ जैसे कितने ही लोगो को अपने जाल मे उलझाया है.

ये किताब नहीं है ये एक ऐसा युग है जिसे पढ़ा नहीं जा सकता सिर्फ महसूस किया जा सकता है और जिया जा सकता है.

जब मैंने पढ़ना शुरू करा था तो लगा था की बस अभी कुछ दिनों मे ही इस किताब को भी और किताबो की तरह पढ़ कर खत्म कर दूंगा लेकिन कुछ पन्नों तक तो पढता गया और पढता गया उसमे आनंद की जो अनुभूति थी वो भी बढती ही गई और जुडाव भी लेकिन उसके बाद हर पन्ना पलटना ऐसा होता गया जैसे हर पन्ने मे एक समय लिखा और उस समय तो तभी बदल सकता है जब वो खुद आगे बढ़ेगा और फिर पढ़ने मे वक्त लगता गया.

वैसे भी युग को पढ़ा नहीं जा सकता सिर्फ जिया जा सकता है और ये यूग तो ऐसा है जिसमे प्रेम ही प्रेम है और उस प्रेम की पवित्रता.

इस २४५ पन्नों के
यूग को जीने की कोशिश कभी एक मुस्कान तो कभी एक ठहाका दे गई है,
कभी एक उदासी,अक्भी दर्द तो  कभी चंद आंसू दे गई है 


और जो दर्द इस युग मे है उस दर्द को शब्दों मे परिभाषित करना मेरे जैसे व्यक्ति के बस की बात तो नहीं है.

अब जब इस युग को एक बार जी चूका हूँ तो फिर से जिऊंगा हर पन्ने के साथ और कोशिश करूँगा आपको भी उस युग मे शामिल करने की

तो आप आ रहे हैं ना इस युग को मेरे साथ जीने के लिए