"ठाकुर साहब युनिवर्सिटी के उन विधार्धियों मे से थे जो बरायनाम विधार्थी होते हैं और कब तक वे युनिवर्सिटी को शुशोभित करे रहेंगे, इसका कोई निश्चय नहीं. एक अच्छे खासे रूपये वाले व्यक्ति थे और घर के ताल्लुकेदार. हंसमुख, फब्तियां कसने मे मजा लेने वाले, मगर दिल के साफ़ निगाह के सच्चे."
एक ही व्यक्ति पर एक ही समय एक ही साथ व्यंग्य करना और तारीफ करना हर किसी के बस कि बात नहीं है लेकिन आप देखिये ऊपर इस रचनाकार ने ना सिर्फ तीखा व्यंग्य किया है बल्कि तारीफ भी उतना ही दिल खोल कार करी है वो भी गिनती के शब्दों मे. ये कलम का जादू हर किसी के बस नहीं होता.
अगर व्यंग्य करेंगे तो सोचने के लिए आप को मजबूर होना पड़ेगा और हंसाने कि लेखक कि इच्छा का आप तिरस्कार कर ही नहीं सकते और हंस ही देंगे. आप ही पढ़िए
"दोनों उठ कार एक कृत्रिम कमल-सरोवर कि ओर चल दिए जो पास ही बना हुआ था. सीढीयां चढ़कर ही उन्होंने देखा कि एक सज्जन किनारे बैठे कमलों कि ओर एकटक देखते हुए ध्यान मे तल्लीन हैं.दुबले पतले छिपकली से बालों कि एक लट माथे पर झूमती हुई-
"कोई प्रेमी हैं, या कोई फिलासफर हैं, देखा ठाकुर?"
"नहीं यार दोनों से निकृष्ट कोटि के जीव है--ये कवि हैं"
हालाकि मै खुद भी कवि होने का गुमान रखता हूँ लेकिन ये पंक्तियाँ मुझे हंसा गई हैं तो आम इंसान कैसे हँसने से इनकार कर देगा.
इस तीसरे पन्ने मे रचनाकार ने ना सिर्फ हँसाया है बल्कि एक कवि के अंदर उपजने वाले मनोभावों और अंतर्द्वंद को भी चित्रित कर दिया है और प्रेम कि परिभाषा इंसान किस तरह से बना सकता है वो भी बताया है और ये भी बताया है की कैसे एक कवि का कई बार समाज मे मजाक उडाया जाता है.
"कपूर बोला -"जहाँ तक मैंने समझा और पढ़ा है -प्रेम एक तरह कि बीमारी होती है, मानसिक बीमारी, जो मौसम बदलने के दिनों मे होती है, मसलन क्वार-कार्तिक या फागुन-चैत. उसका संबंध रीढ़ कि हड्डी से होता है और कविता एक तरह का सन्निपात होता है "
उक्त वक्तव्य कपूर ने बिसरिया के कविता संग्रह के कहानी संग्रह और उपन्यासों से कम बिकने वाले सवाल पर कहे हैं
कहने को काफी कुछ कहा जा सकता है हर पन्ने के लिए लेकिन आज के लिए तीसरा पन्ना काफी है अब फिर मुलाकात होगी अगले पन्ने के साथ